लेखन और साक्षात्कार: तेनज़िन डोलकर
संपादन: मुना गुरुंग
चित्रण: प्रियंका सिंह महारजन
परिचय
पिछले कुछ वर्षों में मैंने दुनिया के विभिन्न हिस्सों से कई असाधारण नारीवादी कार्यकर्ताओं से बात की है। नारीवादी लोगों को संगठित करने और संसाधन जुटाने के संबंध में अतीत और वर्तमान स्थिति के बारे में गहरी अंतर्दृष्टि साझा करते हुए, उन्होंने उन जटिल, बहु-स्त्रोतीय और अक्सर अदृश्य तरीकों पर अपने विचार प्रकट किए जिनसे आंदोलन उनके काम के लिए साधन जुटाते हैं । हमने संसाधन जुटाने के ऐसे रूपों पर चर्चा की जो लोकोपकारी और सरकारी मॉडलों से परे है, मतलब कि वे स्वायत्त हैं, जिन्हें हम "स्वायत्त रूप से संसाधन जुटाना" कहते रहे हैं। हमने नारीवादी सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए संसाधन जुटाने के संबंध में, कार्यकर्ताओं और आंदोलनों द्वारा पहचानी गयी विभिन्न रणनीतियों और प्राथमिकताओं पर भी चर्चा की।
साक्षात्कारों की श्रृंखला की शुरुआत करते हुए, मैंने भारत में स्वायत्त नारीवादी आंदोलनों की सह-स्थापना करने में लंबे समय से जुड़ी नारीवादी और क्वीयर अधिकार कार्यकर्ता चयनिका शाह से बात की। नारीवादी लोगों को संगठित करने में सबसे प्रमुख मुद्दा रहा है, हर अर्थ में "स्वायत्तता" के लिए उनकी लड़ाई। भारत में 1975-1977 के "आपातकाल" कहे जाने वाले एक अंधेरी अवधि के बाद के वर्षों में लोगों को संगठित करने के बारे में चयनिका कहती है: "स्वायत्तता को राजनीतिक दलों से स्वायत्तता, फंडिंग से स्वायत्तता, राज्य से स्वायत्तता और कुछ हद तक पुरुषों से स्वायत्तता के संदर्भ में परिभाषित किया गया था। इस तरह की स्वायत्तता के बारे में हम बात करते थे और हम इस तथ्य के प्रति बहुत सचेत थे।"
नीचे हमारी बातचीत को लंबाई और स्पष्टता के लिए संपादित किया गया है।
तेनज़िन डोलकर:
क्या आप अपने बारे में और अपनी नारीवादी यात्रा के बारे में हमें कुछ बताएँगी?
चयनिका शाह:
मैं मुख्य रूप से मुंबई में कई शहरी, स्वायत्त सामूहिक संस्थाओं का हिस्सा रही हूँ। उनमें से एक सामूहिक संस्था ‘फोरम अगेंस्ट ऑप्रेशन ऑफ वीमेन’ (द फोरम) [महिला उत्पीड़न के खिलाफ मंच] की स्थापना 1979 में हुई और दूसरी सामूहिक संस्था, एलएबीआईए (LABIA/लेबिया) 1995 में गठित हुई जो कि क्वीयर नारीवादी एलबीटी (LBT) सामूहिक संस्था है। दोनों संस्थाओं ने पंजीकरण नहीं कराने का फैसला किया था। इसका मतलब है कि हमने खुद को कहीं भी राज्य के रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं किया है।
फोरम को लगभग 40 से अधिक वर्षों का समय हो गया है और हम हर सप्ताह कम से कम एक बार मिले हैं। हमने बलात्कार के खिलाफ एक मंच के रूप में शुरुआत की थी, लेकिन चार दशकों की अवधि में, हमने बलात्कार से लेकर घरेलू हिंसा, व्यक्तिगत कानून, पारिवारिक कानून, स्वास्थ्य के मुद्दे, सांप्रदायिकता और कई अन्य मुद्दों से निपटा है। हम भारत में आज जिस तरह के माहौल में रह रहे हैं, उसके कारण हम नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता के मुद्दों को संबोधित कर रहें है।
तेनज़िन डोलकर:
इन वर्षों में नारीवादी दृष्टी से संगठित करने का काम करते हुए आपने फंडिंग पर कैसे काम किया है?
चयनिका शाह:
पिछले 40 वर्षों में, केवल एक बार ही फोरम ने अप्रत्यक्ष फंडिंग ली है। यह भारत में मुस्लिम समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को समझने के लिए स्थापित सच्चर कमिटी के काम की पूर्ति के लिए सर्वेक्षण और अनुसंधान करते समय हुआ था। हम विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे और कमिटी की सिफारिशों को लागू करने के लिए राज्य क्या कर सकता है इस बारे में जाँच-पड़ताल कर रहे थे।
तेनज़िन डोलकर:
वरना क्या सदस्य स्वयंसेवा (वालंटियरिंग) कर रहे थे?
चयनिका शाह:
दरअसल हाँ। 1980 में, जब हमने घरेलू हिंसा के मामलों को संबोधित करना शुरू किया, तो इन मुद्दों के संबंध में कोई कानून या तंत्र नहीं थे, इसलिए जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गए, हमें अपने तरीके बनाने पड़े। कोई महिला घर पर उनके साथ हो रही समस्या लेकर हमसे संपर्क करती, तो हम उसे आश्रय देते, उसे सलाह देते और यहाँ तक कि उसके परिवार के खिलाफ भी लड़ते थे। हम वो सब काम कर रहे थे जो आज कानून द्वारा निर्देशित है, लेकिन तब यह कानून नहीं थे। लेकिन उस समय हमें समझ में आया कि हम केवल वालंटियरिंग से अपना काम नहीं चला सकते। तभी हमने महिला केंद्र (विमेंस सेंटर) स्थापित करने का फैसला किया, जो 1982 में हमारी कल्पना में पूर्णकालिक कर्मचारियों के साथ एक फंडिंग सेवा प्रदान करने वाला संगठन बनने जा रहा था। दूसरी ओर, फोरम स्वैच्छिक और फंड न लेने वाला या बिना पंजीकरण के था, लेकिन फोरम के सदस्य महिला केंद्र में वालंटियरिंग कर सकते थे, इस प्रकार दोनों के बीच तालमेल बनाए रखेंगे, ऐसा हमने सोचा था।
लेकिन यह केवल 1982 से 1985 तक ही चला। जवाबदेही, निर्णय लेने और सामूहिक कामकाज पर दोनों पक्षों में समस्याएँ होने लगी। यह स्पष्ट होने लगा था कि संगठन में पूर्णकालिक रूप से काम करने वाले लोगों को लगने लगा कि उन पर सभी जिम्मेदारियों का बोझ डाला जा रहा है जबकि वालंटियर अपने समयानुसार आने-जाने के लिए स्वतंत्र हैं। स्वेच्छा से काम करने वाले कुछ लोगों ने महसूस किया कि केंद्र में उन्हीं संरचनाओं और पदानुक्रमों को दोहराया जा रहा है जिनका वे विरोध कर रहे थे। 1985 में कई मुद्दे सामने आए, जिसके बाद फोरम के हममें से कई लोगों ने केंद्र में स्वेच्छा से काम करना बंद कर दिया। केंद्र के अधिकांश सदस्य फोरम के सदस्य थे और फोरम के सदस्य केंद्र के। लेकिन अब लोगों को पक्ष चुनना था और तय करना था कि वे किस ओर हैं। अंततः फोरम और केंद्र ने दो स्वतंत्र संगठनों के रूप में काम करना शुरू किया। लेकिन भारत में या अन्य जगहों पर ऐसा अक्सर होता है। यह कोई असामान्य बात नहीं थी।
तेनज़िन डोलकर:
क्या आप फंडिंग लेने या न लेने के बारे में सामूहिक संस्थाओं के इरादों और निर्णयों पर कुछ और साझा कर सकती हैं?
चयनिका शाह:
अपने प्रारंभिक वर्षों में महिला आंदोलनों की यह कड़ी उन लोगों से बनी थी जो मुख्य रूप से राजनीतिक वामपंथ से आए थे, जहाँ उन्हें लगा कि उनकी बात नहीं सुनी जा रही है। और यह मुंबई से परे सच था; दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद और अन्य बड़े भारतीय शहरों में भी ऐसी ही बातें सामने आ रही थी। हमें समझ आने लगा था कि हमें स्वायत्त होना होगा और स्वायत्तता को राजनीतिक दलों से स्वायत्तता, फंडिंग से स्वायत्तता, राज्य से स्वायत्तता और कुछ हद तक पुरुषों से स्वायत्तता के संदर्भ में परिभाषित किया गया था। इस तरह की स्वायत्तता के बारे में हम बात करते थे और हम इस तथ्य के प्रति बहुत सचेत थे।
1975 से 1977 तक, भारत ने "आपातकालीन वर्षों" का एक बहुत ही दमनकारी शासन देखा था। आपातकाल समाप्त होने के ठीक बाद हम संगठित करने का कार्य कर रहे थे इसलिए हम ऐसे समय में थे जब हमने राज्य और उसकी शक्ति को पहचाना। अतः हमने राज्य की नज़रों से दूर रहने के बारे में स्पष्ट विकल्प चुना। उन दिनों, विदेशी धन देश में इतनी आसानी से नहीं आता था, कम से कम सामाजिक आंदोलनों के लिए तो नहीं। इसलिए केंद्र के लिए हमने चैरिटी शो, फिल्म स्क्रीनिंग, शहर भर के लोगों से व्यक्तिगत चंदा इकट्ठा करके पैसा जमा करने का काम किया। आखिरकार मुंबई में एक फ्लैट खरीदने के लिए पर्याप्त धन हो गया और यह बहुत बड़ी रकम थी क्योंकि मुंबई में घर हमेशा महंगा होता है। संगठन का दिन-प्रतिदिन का खर्च और स्थायी कर्मचारी को जो भी कम वेतन दिया जाता था, वह धन फंड देने वालों से आया करता था।
तेनज़िन डोलकर:
केंद्र के लिए ये "फंड देने वाले" कौन थे?
चयनिका शाह:
कुछ नारीवादी समझ रखने वाले अमेरिकी दाता केंद्र को फंड देते थे। हम किससे पैसा ले रहे हैं इस बात को लेकर हम बहुत सचेत थे। यह दिलचस्प है कि फंडिंग के संबंध में महिला आंदोलनों में चल रही बहस से ऐसा लगता है कि दो युद्ध पक्ष हैं: फंडिंग विरोधी पक्ष बनाम फंडिंग समर्थक पक्ष। लेकिन ज्यादातर समय, हम मतभेद के पार बात करने में कामयाब रहे और हमने अक्सर महसूस किया कि कुछ-कुछ कार्यों के लिए फंड लेने वाले संगठनों की आवश्यकता होती है। फंड न लेने वाले सामूहिक संस्थाओं की उपस्थिति भी इस तनाव को जीवित रखने में मदद करती हैं। 1980 में शुरू हुए फंड न लेने वाले सामूहिक संस्थाओं में से आज केवल दो ही बचे हैं। एक है ‘फोरम’ और दूसरा दिल्ली में ‘सहेली’ है। बाकी ने या तो काम करना बंद कर दिया या छोटे संगठनों में बंट गए हैं।
तेनज़िन डोलकर:
और मुंबई में महिला केंद्र पुराने फ्लैट में अभी भी काम कर रहा है, है ना?
चयनिका शाह:
पिछले 10 साल में केंद्र की फंडिंग खत्म हो गई लेकिन एक व्यक्ति है जो अभी भी फ्लैट में काम चालू रखते हैं। घटनाओं के इस अजीब मोड़ में, केंद्र में फिर से फोरम की बैठकें हो रही हैं। हम घूम कर वहीं आ गए हैं जहाँ से हमने शुरुआत की थी। लेकिन फ्लैट केंद्र का था फोरम का नहीं। हम इतने सालों से लोगों के घरों और सार्वजनिक जगहों पर मिलते रहे हैं, इसलिए अब यह फ्लैट हमारे लिए केवल मिलने की एक जगह रह गया। जहाँ तक तनाव का सवाल है, पिछले कुछ वर्षों में अधिक समभाव है और एक साथ काम करने की जरुरत की भावना विकसित हुई है।
तेनज़िन डोलकर:
और बताइए, सामूहिक संस्था और वह ऊर्जा कैसे विकसित हुई?
चयनिका शाह:
अंतर यह बना रहा कि केंद्र मुख्य रूप से घरेलू हिंसा से से लड़ कर निकले लोगों के लिए सेवा प्रावधान कार्य कर रहा था और फोरम अधिक अभियान-संबंधी कार्य कर रहा था। इन वर्षों में, अधिक से अधिक संगठनों ने अपने स्वयं के परामर्श या ड्रॉप-इन केंद्र शुरू किए, इसलिए 80 के दशक के मध्य तक, केंद्र इस तरह का एकमात्र स्थान नहीं था। बाद में, घरेलू हिंसा या व्यक्तिगत कानूनों से संबंधित कानूनों के संबंध में अन्य प्रकार के अभियान चलाए गए, जो हमारे कार्य के समान ही थे। तो फोरम उन अभियानों में शामिल था, लेकिन वास्तव में घरेलू हिंसा की स्थितियों में महिलाओं तक पहुँचने के मामले में, हमने पाया कि अधिक कठिन मामले - या उस समय जो भी मुश्किल समझे जाते थे - फोरम में आते थे।
मुझे याद है कि 80 के दशक के अंत में, एक तलाकशुदा महिला को उनके कार्यस्थल पर एक विवाहित व्यक्ति से प्यार हो गया था और परिणामस्वरूप उसे अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। वह मामला फोरम में आया था। फिर बाद में 90 के दशक में दो महिलाएँ ऐसी थीं जो एक-दूसरे से प्यार करती थीं लेकिन उनमें से एक की माँ ने उन्हें पुलिस कार्रवाई की धमकी दी थी। इसलिए वे फोरम में आयी थीं। ये ऐसे मामले थे जिनके बारे में लोगों को लगा कि अन्य संगठन या तो नैतिकतावादी भूमिका लेंगे या क्योंकि वे संगठन मुख्यधारा के गैर-सरकारी संगठनों की तरह बन गए हैं वे उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे।
तेनज़िन डोलकर:
तो क्या स्वायत्त ढाँचे के कारण आप वह कर पाते हैं जो अगर आप फंडिंग के पारंपरिक रूप ले रहे होते तो नहीं कर पाते?
चयनिका शाह:
बहुत कुछ आदान-प्रदान रहा है। मैंने जितना देखा है, जहाँ तक घरेलू हिंसा के क्षेत्र में काम करने का सवाल है, अधिकांश फंडेड संगठन अपनी फंडिंग की स्थिति के कारण एक मौलिक रुख अपनाने में असमर्थ होते हैं। लेकिन मैं संगठनों के बीच विचार-विमर्श का प्रकार या जिसके कारण परिवर्तनात्मक बदलाव हुए है उसे नजरअंदाज नहीं करना चाहती।
यहीं से लेबिया (LABIA) की कहानी शुरू होती है। जब लेबिया (LABIA) का गठन हुआ, तो हमने फिर से पंजीकरण नहीं करने का फैसला किया और यह एक ऐसी बहस थी जो हम लेबिया (LABIA) के लिए बार-बार करते थे। घरेलू हिंसा को लेकर पहले से ही बहुत सारे संगठन काम कर रहे हैं। हमने महसूस किया कि लेबिया (LABIA) के रूप में, हमारा काम वास्तव में उन संगठनों को समलैंगिक महिलाओं और विशेष रूप से ट्रांस (परलैंगिक) व्यक्तियों के मामलों को लेने के लिए तैयार करना था, ऐसे मामले जो मूल रूप से हमारे पास आए लेकिन जिनको राज्य या पुलिस के साथ बातचीत के लिए ज्यादा सहायता की आवश्यकता थी।
तेनज़िन डोलकर:
ऐसा लगता है कि आप एक और गैर-सरकारी संगठन स्थापित नहीं करने के बारे में स्पष्ट थे।
चयनिका शाह:
भारत में आज के राजनीतिक माहौल में, कोई भी सही सोच वाला व्यक्ति राज्य के साथ पंजीकरण नहीं करना चाहेगा। पिछले दशक में हर किसी को जिस तरह के दमन का सामना करना पड़ा है, वह हमारे इतिहास में अद्वितीय है। आपने देखा होगा कि आवाज उठाने वाले या किसी तरह की असहमति जताने वाले लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है?
तेनज़िन डोलकर:
हाँ, बहुत अधिक निगरानी रखी जा रही हैं और छान-बिन होती है।
चयनिका शाह:
80 के दशक में हमने स्वायत्त रूप से संगठित करना क्यों शुरू किया, उस डर की असलियत आज महसूस की जा रही है। लोगों को पकड़ा जा रहा है, उनकी आय की जाँच-पड़ताल की जा रही है; यदि एक बिल भी इधर-उधर हो जाता है या गलत हो जाता है, तो उनकी विदेशी फंडिंग रोक दी जाती है या उनका पंजीकरण रद्द कर दिया जाता है। साथ ही, सरकार नियम या तो बदलती रहती है या नए नियम जोड़ती रहती है, इसलिए किसी संस्था को चलाने के लिए उनकी शर्तों को पूरा करना एक पूर्णकालिक काम हो गया है।
तेनज़िन डोलकर:
मैं समझ रहीं हूँ कि फोरम और लेबिया (LABIA), दोनों के सदस्य मुख्यतः सेल्फ-फंडेड हैं। क्या आप हमें इस बारे में बता सकती हैं कि आप लोगों को संगठित करते समय स्वायत्त रहते हुए भी अपने संसाधन कैसे जुटाती हैं?
चयनिका शाह:
लेबिया (LABIA) में, सिद्धांत यह रहा है कि जरूरत पड़ने पर आर्थिक रूप से बेहतर क्वीयर समुदाय से थोड़े-थोड़े फंड जुटाए जाएँगे। पिछले 24 वर्षों से मैं लेबिया (LABIA) में सक्रिय रही हूँ, तो हमें लगातार ऐसे जोड़ों का सामना करना पड़ा जो घर से भाग आए थे। और अगर लोग आपके पास आ रहे हैं, तो आपको यह सुनिश्चित करना होता है कि वे कहाँ रहेंगे, वे कैसे जीवनयापन करेंगे, उन्हें अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए शिक्षा या कुछ कौशल-निर्माण प्रशिक्षण तक कैसे पहुँच प्रदान करें और इस काम के लिए बहुत अधिक संसाधन जुटाने पड़ते हैं।
धन जमा करने के लिए, हमने पार्टियाँ आयोजित करने जैसे काम किए हैं, जिसमें क्वीयर लोग वास्तव में माहिर होते हैं! और इन पार्टियों में, हमने और भी अधिक धन जुटाने के लिए रचनात्मक खेलों और गतिविधियों का आयोजन किया। इन आयोजनों में जुटाए गए धन का उपयोग उस विशिष्ट कारण के लिए किया जाता था जिसके लिए इसे आयोजित किया गया था और फिर बाकी का बचा हुआ धन "संकट निधि" के रूप में अलग रखा जाता था। जोड़ों के लिए धन जुटाने के अलावा, हमने शिक्षा के लिए भी धन जुटाया है और लेबिया (LABIA) में हम में से प्रत्येक व्यक्ति समय-समय पर योगदान देता है। जो लोग लेबिया (LABIA) का हिस्सा नहीं हैं, ऐसे व्यापक समुदाय से मदद माँगने के अलावा, हमारे आस-पास जो अन्य क्वीयर लोग हैं, हम उस समूह से योगदान मांगते हैं और जितना हो सके उतना प्रयास कर, संसाधन उत्पन्न करते हैं।
हमने लोगों को सफ़र करने के लिए भी धन जुटाया है। लोग पूरे राज्य में और देश के अंदरूनी हिस्सों में बिखरे हुए हैं; ऐसे कई लोग हैं जो फोन पर हमसे संपर्क में रहे हैं, लेकिन हम उनसे नहीं मिले हैं। वे हमें बताते हैं कि वे जहाँ हैं वहाँ वे बहुत अलग-थलग महसूस करते हैं। यह सभी के लिए सच है, लेकिन विशेष रूप से क्वीयर लोगों के लिए, उन्हें अपने जैसे अन्य लोगों से मिलना महत्वपूर्ण होता है। इस तरह के सभी प्रकार के खर्चों के लिए हमने स्वयं धन जुटाया है। लेबिया (LABIA) के रूप में हमने औपचारिक रूप से जो पैसा लिया था, वह 2009 में एक शोध अध्ययन के लिए था, जब हमने देश भर सफ़र करके क्वीयर लोगों की कहानियाँ इकट्ठा की थीं।
तेनज़िन डोलकर:
क्या आप हमें इस बारे में और बता सकती हैं?
चयनिका शाह:
यह एक अन्य फंडेड संगठन के माध्यम से एक परियोजना के रूप में हमारे पास आया था। संबंधित गतिविधियाँ उनके यहाँ चलती थी। यह एक बड़ा अध्ययन था और पहले वर्ष में, हम ग्यारह लोगों ने मिलकर इस पर एक साथ काम किया। बाद में, शोध दल का हिस्सा रहें हम में से चार व्यक्तियों ने लेखन समाप्त करने के लिए टाइम-ऑफ लिया और 'नो आउटलॉज इन जेंडर गैलेक्सी' नामक एक पुस्तक निकाली।
तेनज़िन डोलकर:
इन दिनों दोनों संगठनों की आर्थिक स्थिति क्या है?
चयनिका शाह:
इन वर्षों में, हमने महसूस किया है कि हमारे पास धन नहीं है इसलिए हम काम नहीं कर पाए हैं ऐसा नहीं हैं, बल्कि समय के अभाव के कारण हम काम नहीं कर पाए हैं। जो लोग इन संगठनों में हैं, वे संगठन के आलावा दूसरा काम भी करते हैं और उसे जारी रखना चाहते हैं। मैं लंबे समय तक भौतिकी की शिक्षिका रही हूँ और मेरी तरह फोरम के कई सदस्यों की अपनी कमाई कहीं और से थी। नियमित खर्चों के लिए, फोरम अपने सदस्यों से प्रति माह 50 रुपये इकट्ठा करता है; हम 15 सदस्य हैं, तो एक महीने में 750 रु. जमा होते हैं, जो वास्तव में बहुत ही कम है, लेकिन फिर खर्च कितना हैं? परन्तु आज की युवा पीढ़ी के लिए यह अत्यंत कठिन है क्योंकि शहर में खर्चे बढ़ रहे हैं और स्वैच्छिक कार्य करते रहना मुश्किल हो रहा हैं।
तेनज़िन डोलकर:
फोरम के 50 रु. के सदस्यता मॉडल से आप कहना चाहती है कि यह धन के बारे में नहीं हैं, वास्तव में महत्वपूर्ण और प्रतीकात्मक है। लेकिन साथ ही, जब आप इस निजीकृत नवउदारवादी पूंजीवादी सामाजिक आर्थिक संदर्भ में जीवित रहने की कोशिश कर रहे हैं तो आप बदलाव के लिए कैसे जोर देती हैं?
चयनिका शाह:
यह सामूहिक संस्थाओं की प्रकृति को प्रतिबिंबित करता है। इन दोनों सामूहिक संस्थाओं में ऐसे सदस्य हैं जो स्वायत्त, मध्यम वर्गीय शहरी लोग हैं जिनके पास खर्च करने के लिए स्वयं का धन है। इसलिए हमारे पास पहले से ही आर्थिक या अन्य जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे हुए लोग नहीं हैं। मेरा मतलब है, संगठन का वर्ग बहुत स्पष्ट है। इस तरह के वर्ग विशेषाधिकार के बिना कोई भी स्वैच्छिक कार्य नहीं होता है। हम में से कई लोगों के पास यह वर्ग विशेषाधिकार है। बहुत बार जाति विशेषाधिकार भी वर्ग विशेषाधिकार के साथ काम करता है। इसलिए, समूह बहुत समरूप हो जाते हैं और एक ऐसे अल्पसंख्यक से संबंधित हो जाते हैं जो हमारे आस-पास की बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करते या उन्हें प्रतिबिंबित नहीं करते।
तेनज़िन डोलकर:
वे कौन से तरीके हैं जिनसे आपको लगता है कि वर्तमान संसाधन पारिस्थितिकी तंत्र को रूपांतरित किया जा सकता है, ताकि नारीवादी आंदोलनों तक वास्तव में धन पहुंच सके जैसा की पहुंचना चाहिए?
चयनिका शाह:
समस्या चंदा देने वालों के साथ उतनी नहीं है, जितनी राज्य की चौकसी की है। यह एक आंतरिक मुद्दा है और संगठनों को होशियार होना होगा। फोरम और लेबिया (LABIA) दोनों में ऐसे लोग हैं जो फंडेड संगठनों का हिस्सा हैं और हम यह दोहरा काम करते हैं, जहाँ अन्य फंडेड संगठन का नाम किसी भी राज्य-विरोधी कार्यों में प्रकट नहीं होता है, लेकिन इसके बजाय सामूहिक संस्थाओं के नामों का उपयोग किया जाता है।
एक समस्या यह है कि फंडर्स कम राशि देना पसंद नहीं करते हैं। एचआईवी/एड्स के लिए जो धन देश में आया, वह बड़ी रकम थी, उसे चार बड़े गैर-सरकारी संगठनों के जरिए भेजा गया। इन गैर-सरकारी संगठनों ने फिर छोटे सामुदायिक संगठन बनाए और वे संगठन धन हस्तांतरित करने के माध्यम बन गए। दूसरी चीज यह हैं कि फंडर्स अपना धन विशिष्ट एजेंडा के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं, इसलिए वे कहते हैं, "ठीक है, इस वर्ष किशोरावस्था पर काम करना है।" और फिर हर कोई उन मापदंडों को ध्यान में रखते हुए कुछ कार्य करने के लिए भागदौड़ करता है। इस कारण दीर्घकालिक एजेंडा को आंदोलनों के रूप में बनाए नहीं रख सकते।
एक अच्छी बात यह है कि लोग घरेलू स्तर पर फंड जुटा रहे हैं। आंतरिक घरेलू फंडिंग राज्य द्वारा किए जा रहे दमन को बंद करने में मदद कर सकता है। लेकिन समस्या यह है कि देश में अधिकांश धन मंदिर, अस्पताल और स्कूल बनाने जैसे चीजों के लिए दान स्वरुप है लेकिन सामाजिक न्याय के काम के लिए बहुत कम है। दूसरी सकारात्मक बात यह है कि सेवा प्रावधानों के लिए लोग राज्य के साथ यथासंभव काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए घरेलू हिंसा हेतु संगठन हमेशा के लिए नहीं रहने वाले हैं, इसलिए हमें राज्य तंत्र स्थापित करने की दिशा में काम करना होगा। पिछले चालीस वर्षों में, हमने एक प्रणाली स्थापित की है, इसलिए अब बहुत सारे संगठन यह सुनिश्चित करने की दिशा में काम कर रहे हैं कि जिन लोगों को काम पर रखा गया है वे अच्छी तरह से प्रशिक्षित हो, सामग्री बनाई जा रही हो, कार्यशालाएँ आयोजित की जा रही हो तथा इसी प्रकार के अन्य काम किए जा रहे हों।
तेनज़िन डोलकर:
क्या स्वायत्त आंदोलन या सामूहिक संस्थाएँ बस इसी में लगे हुए हैं?
चयनिका शाह:
सेवा प्रावधान में संगठन नोडल एजेंसियां हैं जो राज्य के साथ काम करती हैं। तो फोरम जैसी संस्था को थोड़ा हटा दिया जाता है। हम कानून के व्यापक ढांचे को समझते हैं और हम उस कानून को स्थापित करने के लिए अभियान में काम करते हैं। लेकिन उस कानून का वास्तविक दिन-प्रतिदिन का कामकाज अभी भी इन मुद्दों को सेवा के रूप में देख रहे संगठनों द्वारा किया जाता है। उनमें से कई सक्रिय और विशेषीकृत हैं।
यह अच्छी बात है कि पिछले दशक में नए स्वायत्त आंदोलन और सामूहिक संस्थाएँ सामने आयी हैं जैसे कि वीमेन अगेंस्ट सेक्सुअल वायलेंस एंड स्टेट रिप्रेशन/लैंगिक हिंसा और राज्य दमन के खिलाफ महिलाएँ (डब्ल्यूएसएस), जो विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि की महिलाओं का एक राष्ट्रव्यापी नेटवर्क है और प्रतिरोध में नारीवादी, कलकत्ता स्थित सामूहिक संस्था है। ये सामूहिक संस्थाएँ और उनके जैसे कई अन्य, राज्य सत्ता का अधिक खुले तौर पर सामना कर रहे हैं और नारीवादी आवाजों को बढ़ा रहे हैं। विशेष रूप से जब भारत में राज्य दमन बढ़ रहा है तो, ऐसी संगठनों की आवश्यकता को स्वीकार किया जा रहा है और महसूस किया जा रहा है।